मंगळवार, ३१ ऑगस्ट, २०१०

प्रवासातील काही किस्से!!!


कंडक्टर  आपल्याला  परिचित  असतो  सुट्या  पैशांसाठी  हुज्जत  घालण्यावरून! पण  हा  कंडक्टर  जरा  वल्ली  होता.
मुंबईची  बेस्ट! गाडीत  ब-यापैकी गर्दी. अंधेरीहून  माटुंग्याला  चाललो  होतो. एक  खेडूत  बाई  बसमध्ये  चढली. तिकीट  काढल्यावर  तिला  उरलेले  सुटे  पैसेही  मिळाले, पण  त्यातील  दोनचं  एक  नाणं काळं  होतं. ती  बाई  कंडक्टरला  म्हणायला  लागली, अहो  हे  नाणं काळं आहे , चालणार  नाही.
कंडक्टर  म्हणाला,  बघू ? 
अहो  याला  पायाच  नाहीत! चालणार  कसं ? माझ्याकडे  पाय  असलेलं नाणं नाही!



आणखी  एक  प्रवासातला  किस्सा. कुठल्यातरी  खेड्यातला. बसला  हीSSS  प्रचंड  गर्दी  आणि  त्यामुळे  प्रत्येक  जण जागा  पकडण्यासाठी  धडपडत  होता . कुणी  दारातून  जोर  जबरदस्ती  करून  चढतोय, कुणी  आपत्कालीन  खिडकीतून  चढतोय  तर  कुणी  खिडकीतून  रुमाल, पिशव्या  किंवा  काहीतरी  टाकतोय.
असाच  एकजण  दारातून  चढून  कसाबसा  एका  सीटवर  जाऊन  बसला. थोड्यावेळाने  दुसरा  एक  माणूस  येऊन  त्याचाशी  जागेवरून  हुज्जत  घालू  लागला. 
अहो  ही  जागा  माझी  आहे. मी  पकडलीय.
कशावरून? 
अहो  मी  इथे  रुमाल  टाकला  होता.
उद्या  तू  ताजमहालावर  रुमाल  टाकशील  आणि  म्हणशील  ताजमहाल  माझा  आहे  म्हणून.
हो  म्हणीनच!
माग  तो  शहाजहान  का  कोण तो,  तुला  हत्तीच्या  पायाखाली  दिल्याशिवाय  राहील  होय?

आता  बोला ! 

रविवार, २२ ऑगस्ट, २०१०

बहर एक लेख

आधी  सांगितलंच  आहे, की  मला  कुठे  काही  चांगलं वाचलं  की  लिहून  ठेवायची  सवय  होती. असंच 14/09/03 ला  कुठल्यातरी  पेपर  मध्ये  आलेला  बहर  या  शीर्षकाखालील  लेख  मी  लिहून   ठेवला  होता. तो  तुमच्यासाठी.


बाहेर  'देवा  हो   देवा'  च्या  रेकॉर्डी  कर्णकर्कश  आवाजात  किंचाळतायत. तडतडणा-या    ताशांचा  आवाज  तर  कान  फोडणारा . या  सर्वाला  भेदून  जाणा-या स्वरात  मध्येच  कानावर  येणा-या   आरतीच्या  लकेरी. एकच कोलाहल. पण  आतल्या हॉलमध्ये  मात्र  निरव  शांतता. निवडक  शे  दोनशे माणसं  आणि  अचानक  कानावर  सूर  येतात.
“जागो  मोहन  प्यारे ”.
सलील  चौधरींच्या  संगीतातून  उमटलेलं  भैरव  रागातील  एक  अप्रतिम  चीज . आपल्या  डोळ्यापुढे  तहानलेल्या  राज  कपूरच्या  ओंजळीत  भरभरून  पाणी  ओतणारी  नर्गिस.
दरम्यान  पुढचं   गीत  सुरूही  झालेलं.
“अलबेला  सजन  आयो  रे ”
भैरवचीच  आणखी  एक  तरल  छटा. अहिरभैरव . ‘ हम  दिल  दे  चुके  सनम!’ त्याच  रागाचे  आणखी  एक  रूप  ‘पुछो  न  कैसे , मैने  रैन  बितायी ’. सचिन  देव  बर्मन  यांची  कारागिरी  आपले  भावविश्व  पुरते  उद्ध्वस्त  करून  टाकणारी ….
आणि  आपण  वास्तवाच्या  पातळीला  येईतो  तोडीची  विविध  रूपे  सामोरी  आलेली .
‘इक  था  बचपन ’
भावनांचे  गहन  अविष्कार  वेगवेगळ्या  छटांमध्ये प्रकट  करण्याची  शक्ती  असलेला  राग  तोडी .
‘रैना  बीती  जाये ….श्याम  न  आये …’
तानसेनच्या  निधनानंतर  त्यांचे  बंधू  मियां  बिलासखान  यांनी  या  रागाचं  एक  आगळंच    रूपडं   पेश  केलं … आणि  लोक  म्हणू  लागले  बिलासखानी  तोडी.
‘झुठे  नैना  बोले …’
दरम्यान  दिवस  माथ्यावर   येऊन  ठेपलेला . राग  सारंग . मन  कसं  अधीर  झालेलं .
‘तुम  बिन  जीवन  कैसे बिता ?
पुछो  मेरे  दिल  से …’
 सावन  के  दिन  आये , बीती  याद  सताये.’
दुपार  थोडी  पुढे  सरकते  आणि  हेमंतकुमारनी  स्वर  बद्ध  केलेले  धीर  गंभीर , तरीही  पुरतं व्याकूळ  करून  टाकणारे  भीमपलासी  सूर  कानावर  येऊ  लागतात.
‘कुछ दिल  ने  कहा ’….कुछ   भी  नही 
‘कुछ  दिल  ने  सुना ’…कुछ भी  नही.
आता  संध्याकाळ  पुरती  झालेली . ही कातरवेळ  तर  गझल  गायनाची . मदनमोहन, गझलांचा  बादशहा. राग  मधुवंती.
‘रस्मे  उल्फत  निभाये …तो  निभाये  कैसे. 
आता  प्रत्यक्षात  मध्यरात्र  जवळ  येऊ  लागलेली. राग  मल्हार. कहां से  आये  बदरा …खुलता  जाये  कजरा ’
आता  रात्रीचा  पहिला  प्रहर  आलेला.
‘ रे  मन  सूर  में गा …’
‘आंसू  भरी हैं  ये  जीवन  की  राहे …’  
‘जिंदगीभर  नही  भूलेगी  ये  बरसात  की  रात ’
एकाच  रागाचे  अनेक  पदर …आणि  आठवणींचा  न  सरणारा  माहोल.
भूप . सकाळीच  गायचा  राग , की  रात्रीच्या  पहिल्या  प्रहरी ?
मारुबिहाग  देशकार  आणि  काव्वालींचे  उसळणारे  तुफान .
बाहेरचे  ‘देवा  हो  देवा ’ चे  सूर  आता  पार  विस्मृतीत  जमा  झालेले  आणि  मन  धुंदावलेलं. हा  सारा  अनुभव  शब्दबद्ध  करणंच कठीण. एकामागोमाग  अंगावर  येऊन  कोसळणारी  गाणी. त्या  गाण्यांचे  शब्द. त्यामागील  भावना. सारंच  भूतकाळाच्या  पार  न  करता  येणाऱ्या  वेढ्याची आठवण  करून  देणारं ….आणि  पाय  निघत  नसतानाही  बाहेर  पडताना  आठवणींच्या  कोशातून  पुन्हा  उमलून  येणारे  स्वर. 


 छान वाटलं ना वाचून ? कोणी लिहीलं माहित नाही. तुम्हाला माहित असेल तर जरूर सांगा.



Rishibhai मित्रांनी दिलेलं नाव.